लखनऊ, यूपी
इस्लाम में रमज़ान माहीने की खास अहमियत है। इसी माहीने में पवित्र किताब कुरान शरीफ आसमान से नाज़िल (उतारी) की गई थी। रोज़ा इस्लाम के पांच स्तंभों में से एक है। रोज़ा आपसी भाईचारे का प्रतीक है। रोज़े का महीना इंसान को अपनी इच्छाओं पर काबू करने का संदेश भी देता है। रोज़ा गरीबों व जरूरतमंदों के दुख दर्द व भूख प्यास का आभास कराता है।
इस्लाम के जानकार बताते हैं कि रमज़ान का महीना सब्र व सुकून का है। इस दौरान अल्लाह की खास रहमतें इंसान पर बरसती हैं। अल्लाह ने कुरान शरीफ में कई जगह रोज़ा रखने को ज़रूरी बताया है। साल एख एक महीने के लिए रोज़े में रखे जाते हैं। रोज़े चांद देख कर शुरु होते हैं और चांद देखकर ईद मनाई जाती है।
अल्लाह के हुक्म से सन 2 हिजरी से मुसलमानों पर रोज़े अनिवार्य किए गए। इसका महत्व इसलिए बहुत ज़्यादा है क्योंकि रमज़ान में शब-ए-कद्र के दौरान अल्लाह ने कुरान शरीफ जैसी नेमत किताब नाज़िल की। रमज़ान में ज़कात का बहुत ही खास महत्व है। किसी इंसान के पास अगर सालभर में उसकी ज़रूरत से ज़्यादा साढ़े 52 तोला चांदी या उसके बराबर की नकदी या कीमती सामान है, तो उस पर उसका ढाई फीसदी ज़कात (दान) के रूप में ग़रीब या ज़रूरतमंद को दिया जाना ज़रूरी है।
रोज़ा को अरबी भाषा में सौम कहा जाता है। सौम का मतलब होता है रुकना, ठहरना यानी खुद पर नियंत्रण या काबू करना। यह वो महीना है, जब हम भूख को शिद्दत से महसूस करते हैं और सोचते हैं कि एक गरीब इंसान भूख लगने पर कैसा महसूस करता होगा। बीमार इंसान, जो दौलत होते हुए भी कुछ खा नहीं सकता, उसकी बेबसी को महसूस करते हैं। प्यास की शिद्दत महसूस करते हैं ताकि ऐसे लोग जो प्यासे हैं उनकी शिद्दत को महसूस किया जा सकते हैं।