वर्ष 1906 में, दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने एक नया कानून बनाया जिसमे भारतीय मूल की आबादी को पंजीकृत कराना अनिवार्य किया गया था। यह एक प्रकार का नागरिकता के कानून जैसा ही था। गांधी जी ने समानता के अधिकार के उल्लंघन के विंदु पर उस कानून के विरोध करने का निश्चय किया। सत्याग्रह की यह प्रथम परीक्षा थी।उस साल 11 सितंबर को जोहान्सबर्ग में हुई एक बैठक में इस नये और बाध्यकारी कानून का भारी विरोध दक्षिण अफ्रीका के भारतीय समाज द्वारा किया गया। सत्याग्रह, गांधी जी के दर्शन का मूल है। उस शब्द का जन्म दक्षिण अफ्रीका में हुआ था, जब उन्होंने दक्षिण अफ्रीका की सरकार के काले कानून का अहिंसक आधार पर और दृढ़ता से विरोध करने का निश्चय किया था। सत्याग्रह नाम कैसे पड़ा और कैसे एक छोटी सी विरोध की घटना ने एक दर्शन और प्रतिरोध के एक ऐसे हथियार की खोज कर ली जिसने दुनियाभर के उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी ताकतों को बिखेर कर रख दिया।
यहूदियों की उस नाटक-शाला में 11 सितंबर, 1906 को हिंदुस्तानियों की सभा हुई। ट्रान्सवाल के भिन्न भिन्न शहरों से प्रतिनिधियों को सभा में बुलाया गया। परंतु मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि जो प्रस्ताव मैंने तैयार किए थे, उनका पूरा अर्थ तो मैं खुद भी उस समय समझ नहीं पाया था। मैं इस बात का अनुमान भी उस समय नहीं लगा सका था कि उन प्रस्तावों को पास करने के परिणाम क्या आएँगे। सभा हुई। नाटक-शाला में पाँव रखने की भी जगह न रही। सब लोगों के चेहरों पर मैं यह भाव देख सकता था कि कुछ नया काम हमें करना है, कुछ नयी बात होनेवाली है। ट्रान्सवाल ब्रिटिश इंडियन एसोसियेशन के अध्यक्ष श्री अब्दुल गनी सभा के सभापति-पद पर आसीन थे। वे ट्रान्सवाल के बहुत ही पुराने हिंदुस्तानी निवासियों में से एक थे। वे महमद कासम कमरुद्दीन नामक विख्यात पेढ़ी के साझेदार थे और उसकी जोहानिसबर्ग की शाखा के व्यवस्थापक थे। सभा में जितने प्रस्ताव पास हुए थे उनमें सच्चा प्रस्ताव तो एक ही था। उसका आशय इस प्रकार था : ‘इस बिल के विरोध में सारे उपाय किए जाने के बावजूद यदि वह धारासभा में पास हो ही जाए, तो हिंदुस्तानी उसके सामने हार न मानें और हार न मानने के फलस्वरूप जो जो दुख भोगने पड़ें उन सबको बहादुरी से सहन करें।’
यह प्रस्ताव मैंने सभा को अच्छी तरह समझा दिया। सभा ने शांति से मेरी बात सुनी। सभा का सारा कामकाज हिंदी में या गुजराती में ही चला, इसलिए किसी को कोई बात समझ में न आए ऐसा तो हो ही नहीं सकता था। हिंदी न समझनेवाले तमिल और तेलुगु भाइयों को इन भाषाओं के बोलनेवाले लोगों ने सारी बातें पूरी तरह समझा दीं। नियमानुसार प्रस्ताव सभा के समक्ष रखा गया। अनेक वक्ताओं ने उसका समर्थन भी किया। उनमें एक वक्ता सेठ हाजी हबीब थे। वे भी दक्षिण अफ्रीका के बहुत पुराने और अनुभवी निवासी थे। उनका भाषण बड़ा जोशीला था। आवेश में आकर वे यहाँ तक बोल गए कि, ”यह प्रस्ताव हमें खुदा को हाजिर मान कर पास करना चाहिए। हम नामर्द बनकर ऐसे कानून के सामने कभी न झुकें। इसलिए मैं खुदा की कसम खाकर कहता हूँ कि इस कानून के सामने मैं कभी सिर नहीं झुकाऊँगा। मैं इस सभा में आए हुए सब लोगों को यह सलाह देता हूँ कि वे भी खुदा को हाजिर मानकर ऐसी कसम खाएँ।”
इस प्रस्ताव के समर्थन में अन्य लोगों ने भी तीखे और जोशीले भाषण किए। जब सेठ हाजी हबीब बोलते बोलते कसम की बात पर आए, तब मैं चौंका और सावधान हो गया। तभी मुझे अपनी जिम्मेदारी का और हिंदुस्तानी कौम की जिम्मेदारी का पूरा भान हुआ। आज तक कौम ने अनेक प्रस्ताव पास किए थे। अधिक सोचने-विचारने के बाद या नए अनुभवों के बाद उन प्रस्तावों में परिवर्तन भी किए गए थे। ऐसे भी मौके आए थे जब प्रस्ताव पास करनेवाले सब लोगों ने उन प्रस्तावों पर अमल नहीं किया। पास किए हुए प्रस्तावों में परिवर्तन करना, प्रस्तावों से सहमत होनेवाले लोगों का बाद में उन पर अमल करने से इनकार करना आदि सारी दुनिया के सार्वजनिक जीवन के सामान्य अनुभव की बातें हैं। परंतु ऐसे प्रस्तावों में कोई ईश्वर का नाम बीच में नहीं लाता। सिद्धांत की दृष्टि से सोचा जाए तो किसी निश्चय में और ईश्वर का नाम लेकर की गई प्रतिज्ञा में कोई भेद नहीं होना चाहिए। जब बुद्धिशाली मनुष्य सोच-समझ कर कोई निश्चय करता है, तो वह अपने निश्चय से कभी डिगता नहीं। उसकी दृष्टि में उस निश्चय का महत्व उतना ही होता है जितना कि ईश्वर को साक्षी रखकर की गई प्रतिज्ञा का।
लेकिन दुनिया सैद्धांतिक निर्णयों के आधार पर नहीं चलती। वह ईश्वर को साक्षी रखकर की गई प्रतिज्ञा और सामान्य निश्चय के बीच महासागर जितना भेद मानती है। किसी सामान्य निश्चय को बदलने में बदलनेवाले को शर्म नहीं आती। परंतु ईश्वर को साक्षी रखकर प्रतिज्ञा करनेवाला मनुष्य जब प्रतिज्ञा का भंग करता है, तब वह खुद हो नहीं शरमाता है, समाज भी उसे धिक्कारता है और पापी मानता है। इस बात ने मानव-मन में इतनी गहरी जड़ जमा ली है कि कानून की दृष्टि में भी कसम खाकर कही गई बात अगर झूठी साबित हो, तो कसम खानेवाला आदमी अपराधी माना जाता है और उसे कड़ी सजा दी जाती है।
ऐसे विचारों से भरा हुआ मैं – जिसे गंभीर प्रतिज्ञाओं का काफी अनुभव था और जिसने प्रतिज्ञाओं के मीठे फल जीवन में चखे थे – सेठ हाजी हबीब के कसमवाले सुझाव से चौंक उठा। मैंने उसके परिणामों का अनुमान एक क्षण में लगा लिया। इस घबराहट से मुझ में उत्साह और जोश पैदा हुआ। और यद्यपि मैं उस सभा में प्रतिज्ञा करने या दूसरों से कराने के इरादे से नहीं गया था, तो भी मुझे सेठ हाजी हबीब का सुझाव बहुत पसंद आया। लेकिन उसके साथ मुझे ऐसा भी लगा कि सभा में आए हुए सब लोगों को सारे परिणामों से परिचित करा देना चाहिए, प्रतिज्ञा का अर्थ सबको स्पष्ट शब्दों में समझा देना चाहिए; और उसके बाद वे प्रतिज्ञा कर सकें तो ही उसका स्वागत करना चाहिए और यदि न कर सकें तो मुझे समझ लेना चाहिए कि हिंदुस्तानी कौम के लोग अभी अंतिम कसौटी पर चढ़ने को तैयार नहीं हुए हैं। इसलिए मैंने सभापति से कहा कि मुझे सेठ हाजी हबीब के कथन का गूढ़ अर्थ सभा को समझाने की इजाजत दी जाए। मुझे इजाजत मिली और मैं खड़ा हुआ। मैंने जिस प्रकार लोगों को समझाया उसका सार आज जैसा मुझे याद है उस रूप में नीचे देता हूँ :
”मैं इस सभा को यह समझाना चाहता हूँ कि आज तक हम लोगों ने जो प्रस्ताव जिस रीति से पास किए हैं, उन प्रस्तावों और उन्हें पास करने की रीति में तथा इस प्रस्ताव और इसे पास करने की रीति में बहुत बड़ा भेद है। यह प्रस्ताव बहुत गंभीर है, क्योंकि इसके संपूर्ण अमल पर दक्षिण अफ्रीका में हमारी हस्ती का आधार है। इस प्रस्ताव को पास करने की जो रीति हमारे मित्र ने सुझाई है, वह जैसे गंभीर है वैसे ही नई भी है। मैं स्वयं तो इस रीति से यह प्रस्ताव पास कराने के इरादे से यहाँ नहीं आया था। इसका श्रेय केवल सेठ हाजी हबीब को ही मिलना चाहिए और इसकी जिम्मेदारी का भार भी उन्हीं के सिर पर है। मैं उन्हें इसके लिए अभिनंदन देता हूँ। उनका सुझाव मुझे बहुत पसंद आया है। लेकिन अगर उनका सुझाव आप स्वीकार करें, तो उनकी जिम्मेदारी में आप सब भी साझेदार बन जाएँगे। यह जिम्मेदारी क्या है, इसे आपको समझ ही लेना चाहिए; और कौम के सलाहकार और सेवक के नाते मेरा धर्म है कि यह जिम्मेदारी मैं आपको पूरी तरह समझा दूँ।
हम सब एक ही सिरजनहार परमात्मा में विश्वास करते हैं। भले ही मुसलमान उसे खुदा कहें और हिंदू उसे ईश्वर कहें, लेकिन उसका स्वरूप एक ही है। उस ईश्वर को साक्षी रख कर या हमारे बीच रख कर यदि हम प्रतिज्ञा करें या कसम खाएँ, तो यह मामूली बात नहीं है। ऐसी कसम खाकर यदि हम अपनी प्रतिज्ञा पर डटे न रहें, उसका भंग करें, तो हम कौम के, दुनिया के और ईश्वर के अपराधी बनेंगे। मैं तो यह मानता हूँ कि जो मनुष्य सावधान रहकर, शुद्ध बुद्धि से, प्रतिज्ञा करता है और बाद में उसे भंग करता है, वह अपनी इनसानियत अथवा मनुष्यता खो देता है। और जिस प्रकार पारा चढ़ाया हुआ तांबे का सिक्का रुपया नहीं है यह पता चलते ही उसकी कोई कीमत नहीं रह जाती, बल्कि उस खोटे सिक्के का मालिक सजा का पात्र हो जाता है, उसी प्रकार झूठी कसम खानेवाले आदमी की भी कोई कीमत नहीं रह जाती; साथ ही वह इहलोक तथा परलोक दोनों में सजा का पात्र ठहरता है। सेठ हाजी हबीब ऐसी ही गंभीर कसम खाने की बात सुझाते हैं। इस सभा में ऐसा एक भी आदमी नहीं है, जो बालक या बेसमझ कहा जाए। आप सब प्रौढ़ हैं, अनुभवी हैं। आपने दुनिया देखी है, आप में से कई लोग कौम के प्रतिनिधि हैं, और आप में से बहुत से लोगों ने कम-ज्यादा जिम्मेदारी के काम भी किए हैं। इसलिए इस सभा का एक भी आदमी ऐसा कहकर अपनी प्रतिज्ञा से मुकर नहीं सकता कि ‘मैंने बिना समझे यह प्रतिज्ञा की थी।
मैं जानता हूँ कि प्रतिज्ञाएँ और व्रत किसी अत्यंत महत्व के अवसर पर ही लिए जाते हैं, और लिए जाने चाहिए। चलते-फिरते प्रतिज्ञा लेनेवाला मनुष्य उनके पालन में दृढ़ नहीं रह पाता है। परंतु यदि दक्षिण अफ्रीका की हिंदुस्तानी कौम के सामाजिक जीवन में प्रतिज्ञा लेने योग्य किसी अवसर की मैं कल्पना कर सकूँ, तो वह निश्चित रूप से यही अवसर है। ऐसे कदम अत्यंत सावधानी से और डर-डर कर उठाए जाएँ, इसी में बुद्धिमानी है। लेकिन सावधानी और डर की भी एक सीमा होती है। उस सीमा तक अब हम पहुँच गए हैं। सरकार ने सभ्यता की मर्यादा का त्याग कर दिया है। उसने हमारे चारों ओर दावानल सुलगा दिया है।
ऐसे समय भी अगर हम अपना सब-कुछ दाँव पर न लगा दें और हाथ पर हाथ धरकर सोच-विचार में ही पड़े रहें, तो हम अयोग्य और कायर सिद्ध होंगे। इसलिए यह अवसर कसम खाने या प्रतिज्ञा लेने का है, इसमें मुझे कोई शंका नहीं है। परंतु यह कसम खाने की शक्ति हम में है या नहीं, यह तो प्रत्येक हिंदुस्तानी को अपने लिए सोच लेना होगा। ऐसे प्रस्ताव बहुमत से पास नहीं हुआ करते। जितने लोग कसम खाते हैं उतने ही उस कसम से बँधते हैं। ऐसी कसमें दिखावे के लिए कभी नहीं खाई जातीं। उसका असर स्थानीय सरकार पर, बड़ी (साम्राज्य) सरकार पर या भारत सरकार पर कैसा पड़ेगा, इसका कोई जरा भी विचार न करे। हर एक को अपने हृदय पर हाथ रखकर अपने हृदय की ही जाँच करनी चाहिए। और ऐसा करने के बाद यदि उसकी अंतरात्मा उत्तर दे कि कसम खाने की शक्ति उसमें है, तो ही उसे कसम खानी चाहिए, और तभी उसकी कसम फल देनेवाली सिद्ध होगी।
अब दो शब्द इसके परिणामों के बारे में भी कह दूँ। उत्तम आशा रखते हुए तो ऐसा कहा जा सकता है कि अगर हिंदुस्तानी कौम का बड़ा भाग यह कसम खा सके और कसम खानेवाले सब लोग अपनी कसम पर डटे रहें, तो संभवतः यह बिल पास न हो; और अगर पास हो भी जाए, तो तुरंत रद कर दिया जाए। संभव है कि बिल का विरोध करने की कसम खाने से हमें बहुत कष्ट न सहने पड़ें। यह भी हो सकता है कि हमें जरा भी कष्ट न सहना पड़े। लेकिन कसम खानेवाले व्यक्ति का धर्म एक ओर यदि श्रद्धा से आशा रखने का है, तो दूसरी ओर किसी भी तरह की आशा न रखकर कसम खाने को तैयार रहने का है। इसीलिए हमारी लड़ाई के जो कड़वे से कड़वे परिणाम आ सकते हैं, उनका चित्र मैं सभा के सामने खींचना चाहता हूँ।
मान लीजिए कि सभा में आए हुए हम सब लोग कसम खाएँ। हमारी संख्या अधिक से अधिक तीन हजार होगी। यह भी संभव है कि बाकी के दस हजार हिंदुस्तानी यह कसम न खाएँ। शुरू में तो हमारी हँसी ही होगी। इसके सिवा, इस सारी चेतावनी के बावजूद यह बिलकुल संभव है कि कसम खानेवाले लोगों में से कुछ या बहुत से लोग पहली कसौटी में ही कमजोर मालूम पड़ें। संभव है कि हमें जेल में जाना पड़े; जेल में जाकर अपमान सहने पड़ें। वहाँ हमें भूख, ठंड और धूप का कष्ट भी भोगना पड़ सकता है; कड़ी मेहनत भी करनी पड़ सकती है। संभव है, जेल में उद्धत दारोगाओं की मार भी हमें खानी पड़े। हमारा जुर्माना हो सकता है और माल-सामान जब्त होकर नीलाम भी किया जा सकता है। अगर लड़नेवाले बहुत कम रह जाएँ, तो आज हमारे पास बहुत पैसा होने पर भी कल हम बिलकुल कंगाल बन सकते हैं। हमें देश निकाले की सजा भी हो सकती है। और भूखों मरते मरते व जेल के दूसरे कष्ट भोगते भोगते हम में से कुछ लोग बीमार भी पड़ सकते हैं और कुछ मर भी सकते हैं।
इसलिए संक्षेप में कहा जाए तो यह बिलकुल असंभव नहीं कि हम जितने भी दुखों और कष्टों की कल्पना कर सकते हैं उतने सब हमें भोगने पड़ें। इसलिए बुद्धिमानी की बात यही होगी कि यह सब हमें सहना पड़ेगा ऐसा मानकर ही हम कसम खाएँ। मुझसे कोई पूछे कि इस लड़ाई का अंत क्या होगा और कब होगा, तो मैं कह सकता हूँ कि सारी कौम यदि इस कसौटी में से पूरी तरह पार हो जाए, तो लड़ाई का फैसला तुरंत हो जाएगा। परंतु यदि हम में से बहुत लोग कष्टों की आँधी आने पर गिर जाएँ या फिसल जाएँ, तो यह लड़ाई लंबी चलेगी। फिर भी इतना तो मैं साहस और निश्चय के साथ कह सकता हूँ कि जब तक मुट्ठी भर लोग भी अपनी प्रतिज्ञा को जीवित रखनेवाले होंगे तब तक हमारी इस लड़ाई का एक ही अंत आएगा। वह यह कि लड़ाई में हमारी निश्चित विजय होगी।
अब मैं अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारी के बारे में दो शब्द कह दूँ। यदि एक ओर मैं आपको प्रतिज्ञा लेने में रहे खतरे बता रहा हूँ, तो दूसरी ओर मैं आपको कसम खाने की प्रेरणा भी दे रहा हूँ। और ऐसा करते हुए मैं अपनी जिम्मेदारी को अच्छी तरह समझ रहा हूँ। यह भी हो सकता है कि आज के आवेश के कारण या गुस्से के कारण इस सभा में उपस्थित लोगों का बड़ा भाग प्रतिज्ञा ले ले, परंतु संकट के समय निर्बल सिद्ध हो और केवल मुट्ठी भर लोग ही अंतिम अग्नि-परीक्षा का सामना करने के लिए रह जाएँ। उस स्थिति में भी मेरे जैसे के लिए तो एक ही मार्ग रह जाएगा : ‘मर जाना किंतु कानून के सामने सिर न झुकाना।’ मान लीजिए कि ऐसी स्थिति आ जाए – ऐसा होने की जरा भी संभावना नहीं है, फिर भी हम मान लें – जब सारे लोग अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दें और मैं अकेला ही रह जाऊँ, तो भी मेरा विश्वास है कि मैं अपनी प्रतिज्ञा का भंग नहीं करूँगा। मेरे इस कथन का उद्देश्य आप सब समझ लें।
यह अभिमान की बात नहीं है, परंतु मुख्यतः इस मंच पर बैठे हुए हिंदुस्तानी नेताओं को सावधान करने की बात है। अपना उदाहरण लेकर मैं नेताओं से नम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ कि आप में अकेले रह जाने पर भी अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहने का निश्चय अथवा वैसा करने की शक्ति न हो तो आप प्रतिज्ञा न लें; इतना ही नहीं, लोगों के सामने यह प्रस्ताव रखा जाए और वे प्रतिज्ञा लें उससे पहले लोगों के सामने आप अपना विरोध प्रकट करें और स्वयं उस प्रस्ताव का समर्थन न करें। यद्यपि हम सब साथ मिलकर यह प्रतिज्ञा लेना चाहते हैं, फिर भी कोई इसका यह अर्थ न करे कि हम में से कोई एक या बहुतेरे लोग अपनी प्रतिज्ञा का भंग कर दें, तो बाकी के लोग स्वभावतः उसके बंधन से मुक्त हो सकते हैं। सब कोई अपनी अपनी जिम्मेदारी को पूरी तरह समझ कर स्वतंत्र रूप से ही प्रतिज्ञा लें और यह समझ कर लें कि दूसरे लोग कुछ भी करें, हम तो मरते दम तक उसका पालन करेंगे।”
इतनी बात कहकर मैं बैठ गया। लोगों ने संपूर्ण शांति रखकर मेरा एक-एक शब्द सुना। कौम के दूसरे नेता भी बोले। सबने अपनी जिम्मेदारी तथा श्रोताओं की जिम्मेदारी की चर्चा की। इसके बाद सभापति खड़े हुए। उन्होंने भी सारी स्थिति स्पष्ट की। अंत में समस्त सभा ने खड़े होकर, हाथ ऊँचे करके और ईश्वर को साक्षी रखकर यह प्रतिज्ञा ली कि ‘बिल पास होकर यदि कानून का रूप ले ले तो हम उसके सामने सिर नहीं झुकाएँगे।’ उस दृश्य को मैं जीवन में कभी भूल नहीं सकता। लोगों के उत्साह का पार न था। दूसरे ही दिन उस नाटकशाला में कोई दुर्घटना घटी और सारी नाटक-शाला आग में जलकर खाक हो गई। तीसरे दिन लोग मेरे पास नाटक-शाला के जलने के समाचार लेकर आए और यह कह कर कौम की बधाई देने लगे कि नाटक-शाला का जलना एक शुभ शकुन है; जिस तरह नाटक-शाला जलकर खास हो गई उसी तरह वह बिल भी जलकर खाक हो जाएगा। ऐसे चिह्नों का मुझ पर कभी असर नहीं हुआ, इसलिए मैंने इस घटना को कोई महत्व नहीं दिया। इस बात का उल्लेख मैंने यहाँ केवल लोगों के शौर्य और श्रद्धा का दर्शन कराने के लिए ही किया है। हिंदुस्तानी कौम के शौर्य और श्रद्धा के अनेक प्रमाण आगे के प्रकरणों में पाठकों के सामने आएँगे।
ऊपर की महान सभा होने के बाद कार्यकर्ता चुपचाप बैठे न रहे। जगह-जगह सभाएँ की गई और हर सभा में सर्वानुमति से प्रतिज्ञाएँ ली गईं। अब ‘इंडियन ओपीनियन’ में खूनी कानून ही चर्चा का मुख्य विषय बन गया।
दूसरी ओर, स्थानीय सरकार से मिलने के कदम भी उठाए गए। एक प्रतिनिधि-मंडल उपनिवेश-मंत्री श्री डंकन से मिलने गया और अन्य बातों के साथ उसने कौम के लोगों द्वारा ली गई प्रतिज्ञा की बात भी उनसे कही। सेठ हाजी हबीब ने, जो प्रतिनिधि-मंडल के एक सदस्य थे, कहा : “अगर मेरी पत्नी की अँगुलियों की छाप लेने कोई अधिकारी आएगा, तो मैं अपने गुस्से को जरा भी काबू में नहीं रख सकूँगा। मैं जान से मार दूँगा और खुद भी मर जाऊँगा।” उपनिवेश-मंत्री क्षणभर तो सेठ हाजी हबीब के मुँह की ओर देखते रहे। फिर बोले : यह कानून स्त्रियों पर लागू किया जाए या न किया जाए, इस प्रश्न पर सरकार सोच रही है। और इतना विश्वास तो मैं इसी समय आपको दिला सकता हूँ कि स्त्रियों से संबंध रखनेवाली इस कानून की धाराएँ वापस ले ली जाएँगी। इस संबंध में आपकी भावनाओं को सरकार समझ गई है और वह उनका सम्मान करना चाहती है। परंतु जहाँ तक दूसरी धाराओं का संबंध है, मुझे यह बताते हुए दुख होता है कि सरकार उनके विषय में दृढ़ है और आगे भी दृढ़ रहेगी।
जनरल बोथा चाहते हैं कि आप पूरा विचार करके यह कानून स्वीकार कर लें। सरकार गोरों के अस्तित्व के लिए इस कानून को जरूरी मानती है। कानून के उद्देश्यों की रक्षा करते हुए उसकी तफसीलों के बारे में आप कोई सुझाव रखेंगे, तो सरकार अवश्य उन पर ध्यान देगी। इसलिए प्रतिनिधि-मंडल को मेरी सलाह है कि इस कानून को स्वीकार करके आप तफसीलों के बारे में ही अपने सुझाव सरकार के समक्ष रखेंगे तो आपका हित होगा। उपनिवेश-मंत्री के साथ प्रतिनिधि-मंडल की जो दलीलें हुईं उन्हें मैं यहाँ नहीं दे रहा हूँ, क्योंकि वे सब दलीलें पिछले प्रकरणों में आ चुकी हैं। उपनिवेश-मंत्री के समक्ष इन दलीलों को प्रस्तुत करने में केवल भाषा का ही भेद था – दलीलें सब वहीं थीं।
प्रतिनिधि-मंडल ने यह कहकर कि आपकी सलाह के बावजूद कोई हिंदुस्तानी इस कानून को स्वीकार नहीं करेगा और स्त्रियों को कानून से मुफ्त रखने के इरादे के लिए सरकार का आभार मानकर उपनिवेश-मंत्री से बिदा ली। यह कहना कठिन है कि इस खूनी कानून से स्त्रियों की मुक्ति हिंदुस्तानी कौम के आंदोलन के कारण हुई या सरकार ने ही अधिक सोच-विचार कर श्री कर्टिस की वैज्ञानिक पद्धति को अस्वीकार कर दिया और कुछ हद तक लौकिक व्यवहार को नजर में रखकर यह छूट दी। सरकार का दावा यह था कि वह हिंदुस्तानी कौम के आंदोलन के कारण नहीं, परंतु स्वतंत्र रूप से ही इस निर्णय पर पहुँची थी। जो भी हो, परंतु कौम ने तो काकतालीय न्याय से यह मान लिया कि केवल उसके आंदोलन ही यह परिणाम आया है; और इससे उसका लड़ने का उत्साह बढ़ गया।
हममें से कोई यह जानता नहीं था कि कौम के इस निश्चय को अथवा आंदोलन को क्या नाम दिया जा सकता है। उस समय मैंने इस आंदोलन को ‘पैसिव रेजिस्टेन्स’ का नाम दिया था। उस समय तो मैं ‘पैसिव रेजिस्टेन्स’ का गूढ़ार्थ भी पूरी तरह जानता या समझता नहीं था। मैं केवल इतना ही समझा था कि किसी नवीन सिद्धांत का जन्म हुआ है। हमारी लड़ाई ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती गई त्यों त्यों ‘पैसिव रेजिस्टेन्स’ नाम के कारण उलझण बढ़ती गई और इस महान संग्राम को केवल अँग्रेजी नाम ही देना मुझे लज्जास्पद लगा। इसके सिवा, ये शब्द ऐसे थे जो कौम की जबान पर चढ़ भी नहीं सकते थे। इसलिए जो कोई इस संग्राम के लिए उत्तम शब्द खोज निकाले उनके लिए मैंने ‘इंडियन ओपीनियन’ में एक छोटे से इनाम की घोषणा की।
कुछ नाम मेरे पास आए। उस समय तक ‘इंडियन ओपिनियन’ में इस लड़ाई के अर्थ की अच्छी तरह चर्चा हो चुकी थी। अतः यह कहा जा सकता है कि प्रतिस्पर्धियों के सामने नाम की खोज करने के लिए पूरी सामग्री थी। श्री मगनलाल गांधी ने भी इस स्पर्धा में भाग लिया। उन्होंने ‘सदाग्रह’ नाम भेजा। यह नाम पसंद करने का कारण बताते हुए उन्होंने लिखा कि हिंदुस्तानियों का यह आंदोलन एक महान ‘आग्रह’ है और यह आग्रह ‘सद्’ अर्थात शुभ है, इसीलिए उन्होंने यह नाम चुना है। उनकी दलील का सार यहाँ मैंने थोड़े में दिया है। यह नाम मुझे पसंद आया। परंतु जिस वस्तु का समावेश मैं सुझाए हुए नाम में करना चाहता था वह इसमें नहीं आती थी। इसलिए मैंने ‘द्’ का ‘त्’ करके उसमें ‘य’ जोड़ दिया और ‘सत्याग्रह’ नाम बना दिया।
सत्य के भीतर शांति का समावेश मानकर और किसी भी वस्तु का आग्रह करने से उसमें बल उत्पन्न होता है इसलिए आग्रह में बल का समावेश करके मैंने भारतीयों के इस आंदोलन को ‘सत्याग्रह’ – अर्थात सत्य और शांति से उत्पन्न होनेवाले बल – का नाम दिया और उसी नाम से इसका परिचय कराया। और तब से ‘पैसिव रेजिस्टेन्स’ शब्द का उपयोग इस आंदोलन के लिए बंद कर दिया। वह भी इस हद तक कि अँग्रेजी के लेखों या पत्रों में भी बहुत बार ‘पैसिव रेजिस्टेन्स’ शब्द का उपयोग न करके मैंने ‘सत्याग्रह’ शब्द का या किसी दूसरे अँग्रेजी शब्द का उपयोग शुरू कर दिया। इस प्रकार जो वस्तु सत्याग्रह के नाम से पहचानी जाने लगी उस वस्तु का और ‘सत्याग्रह’ नाम का जन्म हुआ। हमारे इस इतिहास को आगे बढ़ाने से पहले ही ‘पैसिव रेजिस्टेन्स’ और ‘सत्याग्रह’ के बीच का भेद समझ लेना आवश्यक है ।