लखनऊ, यूपी
मंगलवार को देश की राजधानी दिल्ली में जिस प्रकार से सड़क पर उतरकर हजारों की संख्या में पुलिसकर्मियों ने अपने रोष का प्रदर्शन किया, उसने दशकों पूर्व हुए पुलिस विद्रोह की यादें ताज़ा कर दी हैं। कल दिल्ली में जब पुलिसकर्मियों ने अपने सम्मान एवं सुरक्षा के लिए पूर्व पुलिस अधिकारी किरण बेदी को याद किया, उसने यह साफ संदेश दे दिया है कि वर्तमान में तैनात पुलिस अफसर अपने मातहतों का खयाल नहीं रखते हैं।
असल में वर्ष 1988 में जब तीस हजारी कोर्ट में ही वकीलों और पुलिसवालों के बीच टकराव हुआ था, तब तत्कालीन पुलिस अफसर किरण बेदी अपने जवानों के लिए डटकर खड़ी हो गईं थीं, जो मंगलवार को नहीं हुआ और पुलिसवालों को सड़क पर उतरना पड़ा और बार बार उन्हें याद करना पड़ा।
इस घटनाक्रम ने एक जबरदस्त बहस की शुरुवात कर दी है कि सच्चा कौन है? वकील और पुलिस दो खांचें में बंट गए हैं। वकील कह रहे हैं कि पुलिस भ्रष्ट और निर्दई होती है और खोमचे वालों तक से वसूली करती है जबकि पुलिस कह रही है कि वकील बेईमान होते हैं, गुंडई करते हैं, सालों तक मुकदमा लटकाए रहते हैं, मनमानी फीस वसूलते हैं और दूसरी पार्टी से मिल भी जाते हैं। साकेत कोर्ट के सामने वर्दीधारी दरोगा की पिटाई और महिला पुलिस अफसर का यौन उत्पीडन क्या देश की राजधानी के भीतर सर्वोच्च शिक्षित समूह द्वारा ‘मोब लिंचिंग’ का ज्वलंत उदाहरण नहीं है?
वकीलों के पास अपनी अनियंत्रित भीड़ है, उनके संगठन हैं और उनके पास न्यायपालिका है जो उनके साथ खड़ी रहती है, दिनभर का को साथ रहता है। साथ में राजनीतिक दलों के ऊपर उनका अपना दबदबा है जिसकी वजह से कोई भी राजनीतिक दल उनके मसले में अपनी निष्पक्ष नाक घुसेड़ सकने का दुस्साहस करने की सोच भी नहीं सकता है। उल्टे उनके सामने हाथ बांधकर खड़े रहने की मुद्रा ही उसे सुरक्षित लगती है, चुनाव में वोट जो लेना है!
दूसरी तरफ पुलिस के पास मजबूरी है कि वे अनुशासित फोर्स हैं और आमतौर पर उनके साथ उनका अफसर भी खड़ा नहीं होता है। क्योंकि वह जानता है कि न्यायपालिका की नजर उसपर पड़ी तो उसकी नौकरी गई। सजा होने पर या किसी को सजा दिलाने के लिए उसे कोर्ट में वकीलों के बीच ही रोज ही जाना पड़ता है और इस तरह के अनेक उदाहरण मिलेंगे जब कोर्ट में वकीलों ने पुलिस की पिटाई कर दी। ऐसे में पुलिस वकीलों से हमेशा भयभीत रहती है और उन्हें कोसती भी रहती है।
मैंने कई बार देखा है जब वकीलों के आंदोलन में कोई निर्दोष फंस जाता है तो वहां पर मौजूद डीएम और एसपी भी मुंह फेर लेते हैं कि इनसे कौन भिड़े? जो फंस गया है, वह अपने भगवान को याद करे! कम से कम हर पुलिस अफसर तो वकीलों को देखकर भाग खड़ा होता ही है। वकीलों से भिड़ने के लिए वह सिपाही दरोगा को छोड़ जाता है ताकि बाद में आंदोलन होने पर उन्हें सस्पेंड करके वकीलों को शांत किया जा सके।
मैंने कितनी ही बार देखा है कि चौराहे पर लाल बत्ती होने पर जब जज की कार रोक दी जाती है तो जिले के एसपी को जज के चैंबर में सिर झुकाकर माफी मांगनी पड़ती है। संदेश साफ है कि लड़ाई सच और झूठ की नहीं बल्कि अपनी मूंछों की है। किसके पास है सामने वाले को झुका देने की ताकत?
लेकिन एक वाकया अभी हाल का है जब एक जज को अपनी कुर्सी इसलिए गंवानी पड़ी क्योंकि उसने एक सिपाही की वर्दी उतरवाकर धूप में खड़ा कर दिया था। हालांकि जज ने वहीं किया था जो यहां पर दशकों से हर रोज होता आ रहा है कि उनकी गाड़ी को कोई रोके तो उसे उसकी औकात दिखा देना।
लेकिन इस बार उनके दुर्भाग्य से सिंघम के रूप में डीजीपी ओपी सिंह मौजूद थे और उन्हें जब अपने सिपाही के आंसू दिखाई पड़े तो उनसे न रहा गया और उन्होंने हाई कोर्ट में जज की शिकायत करा के और पैरवी कर के उस जज को उस जिले से बाहर करा कर के ही दम लिया और अपने सिपाही के आत्मसम्मान की रक्षा की।
यह मामला है इसी वर्ष की 26 जुलाई का आगरा का जब जज की गाड़ी को एक वज्र वाहन ने पास नहीं दिया। वज्र वाहन जिला कारागार से किशोर कैदियों को लेकर मलपुरा क्षेत्र के सिरोली रोड पर स्थित किशोर न्यायालय बोर्ड जा रहा था। उसी दौरान पीछे से किशोर न्यायालय बोर्ड के जज संतोष कुमार यादव अपनी कार से आ रहे थे।
जज की कार के चालक ने साइड देने के लिए हॉर्न और हूटर का इस्तेमाल किया, लेकिन सिपाही चालक घूरे लाल ने जज की गाड़ी को साइड नहीं दी। थोड़ी देर में वज्र वाहन कोर्ट पहुंचा, उसके पीछे जज भी अपनी कार से पहुंचे। जज ने वज्र वाहन चालक को बुलाया और साइड न देने के लिए जमकर फटकार लगाई और चालक की न सिर्फ वर्दी उतरवा दी बल्कि अधनंगी हालत में उसे धूप में खड़ा भी करवा दिया ताकि उधर से आने जाने वाले लोग देखें कि जज से टकराने का अंजाम क्या होता है?
इस मामले के संज्ञान में आने पर डीजीपी ओपी सिंह ने आगरा एसएसपी बबलू कुमार से रिपोर्ट मांगी और हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल मयंक कुमार जैन को रिपोर्ट भेजकर जज का तबादला महोबा करा दिया।
डीजीपी ओपी सिंह द्वारा किए गए इस कार्य की यूपी पुलिस कायल हो गई और अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल से अपने मुखिया की सराहना करते हुए धन्यवाद किया था।
साफ है कि जब विभाग का मुखिया अपने मातहत के दुख़ में उसके साथ खड़ा होगा, तभी वह भी अन्याय के खिलाफ लड़ने का साहस अपने अंदर पैदा कार पाएगा।