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6 Oct 2024, Sun

डॉक्टर और अस्पताल को भारी पड़ेगी इलाज में लापरवाही

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Rida Khan

रिदा ख़ान

हैदराबाद, तेलंगाना
हैरानी की बात है कि डॉक्टर भी कई बार बीमारी और मौत का कारण बन जाते हैं। कभी बीमारी के बारे में गलत निर्णय ले लेने से और कभी असल में असावधानी के कारण। आज के ज़माने में छोटी, बड़ी और गंभीर बीमारियों के लिए चिकित्सीय हस्तक्षेप की संभावना है। इस कारण से दवाओं और चिकित्सा का इस्तेमाल बहुत बड़े स्तर पर होने लगा है।

कई अप्रशिक्षित डॉक्टर आधुनिक दवाएं और तरीकों का इस्तेमाल बिना इन्हें समझे निदान और इलाज के लिए करते हैं। इससे काफी नुकसान होता है और इसमें से ज़्यादातर की रिपोर्ट भी नहीं होती है। गॉंवों में ऐसा अक्सर होता है। ग्रामीण इलाकों में क्योंकि चिकित्सा के लिए और कोई विकल्प नहीं होता इसलिए स्वास्थ्य विभाग को इन झोला छाप डॉक्टरों को प्रशिक्षित करना चाहिए और लोगों को भी सही तरह से जानकारी देनी चाहिए।

गलती या चिकित्सीय असावधानी?
दवाओं और बीमारियों के बारे में जानकारी बढ़ने से इंसानी जीवन और अधिक चिकित्सा पर निर्भर होता जा रहा है। इसके अपने फायदे और खतरे हैं। चिकित्सीय इलाज में चाहे किसी का नुकसान करने की मंशा न भी हो तो भी इसके गलत असर भी अकसर देखने को मिलते हैं। यहॉं कुछ खतरे हम उजागर कर रहे है।

अपेक्षित और अंतर्निहित खतरे, जैसे कि किसी दवा के साथ में होने वाले बुरे असर (अमीनोफिलीन के कारण गैसीय शोभ), हड्डी टूटने में खुले स्थान पर पीप बनना आदि के बारे में परिवार के सदस्यों को समझाया जाना चाहिए। इसके लिए बाद में डॉक्टर पर आरोप नहीं आना चाहिए।

अनेपक्षित समस्याएं कभी कभी ही होती हैं। जैसे कि बच्चे के जन्म के समय बहुत अधिक खून बह जाना, आपरेशन के बाद संक्रमण होना, बेहोश करने के लिए ऐनेस्थीशिया देते समय दिल का रुक जाना आदि। इन्हें कम ज़रूर किया जा सकता है पर पूरी तरह से खत्म नहीं किया जा सकता। ऐसी प्रक्रियाएं करने से पहले बता कर रजामंदी ली जाती है। इलाज के खतरे की तुलना इससे होने वाले फायदे से की जाती है। अगर इलाज करने वाले पर पूरा विश्वास हो और बीमार व्यक्ति को पूरी जानकारी दी जाए, तो गलतफहमी से कुछ हद तक बचा जा सकता है। सब कुछ इसपर निर्भर करता है कि यह प्रक्रिया कितनी ज़रूरी है, क्या पहले कोई तुलनात्मक रूप से सुरक्षित विकल्प से इलाज करने की कोशिश की जानी चाहिए। यह भी पक्का हो जाना चाहिए कि खतरा टालने के लिए और इलाज के लिए सब कुछ किया गया है। दवाओं के प्रति एलर्जी भी इलाज की एक आम समस्या है। इसके लिए भी डॉक्टर को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जाता।

जॉंच निदान में गलतियॉं जैसे मस्तिष्क आवरण शोथ को मलेरिया समझ लेना या कैंसर की बहुत देरी तक पहचान न हो पाना, निमोनिया या तपेदिक को आम खॉंसी समझ लेना, अक्सर हो जाती हैं। यह या तो जानकारी के अभाव में होता है या असावधानी के कारण। दोनों से ही बचना चाहिए। परन्तु गलत निदान के लिए कोई सजा नहीं होती है।

गलत इलाज भी काफी आम है जैसे मलरिया के लिए जीवाणुरोधी दवा दे देना या गर्भपात के डर से इसे रोकने के लिए ऑक्सीटोसिन दे देना (जिससे गर्भाशय सिकुड़ जाता है), या ऐसे व्यक्ति को ऐस्परीन दे देना जिसे पहले से ही आमाश्य के अल्सर या दमा की शिकायत है। आपरेशन के दौरान गलतियॉं तो कम ही होती हैं, पर बहुत से आपरेशन बिना ज़रूरत के किए जाते हैं। उदाहरण के लिए कुछ शहरो में ६० प्रतिशत प्रसव ऑपरेशन द्वारा होते पाये गये हैं और सामान्य प्रसव उसके मुकाबले कम होते हैं। कई बार टॉन्सिल शोथ के लिए भी बिना दवाओं के प्रयोग के बजाय सीधा ऑपरेशन कर दिया जाता है।

पहली दो समस्याएं तो जीविविज्ञान और चिकित्सा से संबंधित हैं। अगर चिकित्सक ने उनसे मरीज़ को बचाने के लिए सावधानी बरती है तो हम उन्हें इसके लिए दोषी नहीं ठहरा सकते। आखरी दो समस्याएं गलत निदान, गलत इलाज और असावधानी से जुड़ी हैं यह निश्चित रूप से चिकित्सक की गलतियॉं हैं। फिर भी तय करने में गलती (अगर यह बहुत बड़ी न हो) के लिए किसी को उतना दोषी नहीं ठहराया जा सकता जितना कि असावधानी के लिए।

असावधानी किसी चिकित्सक की लापरवाही का नतीजा होता है। इसमें ऐसी गलतियॉं शामिल होती हैं जिनसे बुनियादि चिकित्सा सिद्धांत अपनाने से बचा जा सकता था। खराब निदान या इलाज के कारण हुई गलतियॉं, गलत कार्यवाही (जैसे गलत समूह का खून दे देना) और मरीज की उपेक्षा करना आदि सभी ‘लापरवाही’ माने जाएंगे।

उपभोक्ता बचाव अधिनियम
भारत में लगभग तीन चौथाई चिकित्सा सेवा निजी क्षेत्र में हैं। डॉक्टरों के विरोध के बावजूद 1995 से निजी चिकित्सा सेवा को उपभोक्ता बचाव अधिनियम (उ.ब.अ.) के दायरे में ले जाया गया। यह समझने की ज़रूरत है कि डॉक्टरों, मरीज़ों और स्वास्थ्य कायर्र्कर्ताओं के लिए इसका क्या अर्थ है। इसके कुछ प्रमुख सिद्धांत नीचे दिए गए हैं।

वे सभी चिकित्सक जो मरीज से इलाज के लिए फीस लेते हैं इस अधिनियम के दायरे में आते हैं। तब भी जब उनहोंने किसी केस के लिए पैसा न भी लिया हो। पुण्यार्थ संस्थान भी अगर मरीज से इलाज के लिए पैसा लेते हैं तो वे इस अधिनियम के दायरे में आते हैं।

किसी को भी अगर लगे कि उसे किसी चिकित्साकर्मी (डॉक्टर या नर्स या अस्पताल) की लापरवाही के कारण कोई नुकसान उठाना पड़ा है तो वह उपभोक्ता न्यायालय में मामला दर्ज करवा सकता है। पर यह साबित करना कि मामला सचमुच लापरवाही का है उसकी अपनी ज़िम्मेदारी होता है। अगर किसी को मामला दर्ज करवाना हो तो

इलाज और जॉंच का सारा रिकॉर्ड वहॉं देना पड़ेगा। डॉक्टर के लिए यह अनिवार्य है कि वो मांगे जाने पर सारा रिकॉर्ड दे दे।

दो विशेषज्ञों को यह अनुमोदित करना होता है कि वास्तव में मामला लापरवाही का है और उन्हें उपभोक्ता न्यायालय में जिरह में सवालों के जवाब भी देने होते हैं।

शिकायतकर्ता को घटना के दो सालों के अंदर ही इसकी शिकायत दर्ज करवानी होती है।

शिकायतकर्ता को बताना होता है कि उसे किस तरह का और कितना नुकसान हुआ है और इसके लिए उसे कितना मुआवज़ा मिलना चाहिए।

अगर जितनी रकम का दावा किया गया है वह ५ लाख से कम है तो जिला उपभोक्ता न्यायालय में शिकायत की जानी चाहिए। पर अगर मांगी गई रकम ५ से २० लाख की है तो राज्य के उपभोक्ता न्यायालय में शिकायत की जानी चाहिए। इससे भी ज़्यादा राशि के लिए राष्ट्रीय उपभोक्ता न्यायालय में शिकायत करनी होती है।

बेहतर होता है कि मामला दर्ज करने से पहले किसी उपयुक्त उपभोक्ता संगठन के पास जाया जाए। इससे बहुत सी गैरज़रूरी कानूनी कार्यवाही और परेशानी से बचा जा सकता है। इन जगहों में ऐसे विषेशज्ञ होते हैं जो मामला दर्ज करने के बारे में सलाह दे सकते हैं।

उपभोक्ता न्यायालय में कोई भी कोर्ट फीस नहीं देनी पड़ती परन्तु अगर लापरवाही का मामला गलत साबित हो जाए तो शिकायतकर्ता को 10,000 रूपये देने पड़ते हैं। उपभोक्ता बचाव अधिनियम मरीज़ों के अधिकारों के आंदोलन में बेशक एक ऐतिहासिक घटना है। इससे हताहत मरीज़ के परिवार को न्याय हासिल करने का एक मुफ्त और आसान तरीका मिल जाता है। इससे डॉक्टर भी मरीज़ों के प्रति और अधिक ज़िम्मेदार होंगे।

उपभोक्ता बचाव अधिनियम की कुछ समस्याएं
इस अधिनियम की भी कुछ समस्याएं हैं। इसकी आड में डॉक्टर और अधिक टैस्ट करने, और अधिक फीस लेने और मंहगा इलाज करने का मौका मिल गया है ताकि वे इससे कानूनी कार्यवाही, मुआवज़े और अपने पेशे के खतरों का खर्च भी निकाल सकें। उपभोक्ता बचाव अधिनियम की मौजूदगी पहले से ही काफी तनावपूर्ण डॉक्टर मरीज संबंधों को और भी अधिक तनावपूर्ण बना देता है।

(लेखक रिदा ख़ान मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी में अध्यनरत है और डॉक्टर्स और मरीज़ों के हितों पर रिसर्च कर रही हैं।)