सुप्रीम कोर्ट में एमडीएमके महासचिव वायको की याचिका पर सुनवाई शुरू होने से चंद घंटे पहले जम्मू-कश्मीर के गृह विभाग ने आधिकारिक तौर पर फ़ारुख़ अब्दुल्ला को जन सुरक्षा क़ानून के तहत 12 दिनों के लिए हिरासत में ले लिया। 5 अगस्त को आर्टिकल 370 पर केंद्र सरकार के फ़ैसले के बाद पहली बार अब्दुल्ला को हिरासत में लिए जाने की आधिकारिक पुष्टि हुई है। ये बेहद दिलचस्प मामला है। फ़ारुख़ अब्दुल्ला को सार्वजनिक तौर पर आख़िरी बार 4 अगस्त को तब देखा गया था जब उन्होंने श्रीनगर में अपने घर पर सर्वदलीय बैठक बुलाई थी।
6 अगस्त को जब लोकसभा में फ़ारुख़ अब्दुल्ला नहीं दिखे तो सुप्रिया सुले और दयानिधि मारन ने सवाल उठाए। डीएमके सांसद मारन ने लोकसभा में आशंका ज़ाहिर की थी कि अब्दुल्ला को या तो गिरफ़्तार किया जा चुका है या फिर उन्हें हिरासत में लिया गया है। उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला से इस पर सफ़ाई मांगी। बिड़ला ने जवाब में इतना भर कहा कि वो ‘मामले को देखेंगे।’ उसी दिन अमित शाह ने सदन में कई बार सफ़ाई दी और हर बार कहा कि अब्दुल्ला ना तो गिरफ़्तार किए गए हैं और ना ही उन्हें हिरासत में लिया गया है।
उन्होंने कहा, “मैं तीन बार साफ़ कर चुका हूं कि फ़ारुख़ अब्दुल्ला जी घर में हैं। उन्हें ना तो नज़रबंद किया गया है ना ही हिरासत में रखा गया है। वे मौज मस्ती में हैं। उनको नहीं आना है तो गन कनपट्टी पर रखकर बाहर नहीं ला सकते हम।”
इसके बाद अब्दुल्ला ने एक टीवी चैनल पर रोते हुए कहा था कि अमित शाह झूठ बोल रहे हैं, लेकिन सरकार का आधिकारिक रुख़ नहीं बदला। केंद्र सरकार इस बात पर क़ायम रही कि फ़ारुख़ अब्दुल्ला ‘आज़ाद’ हैं। लेकिन क्या ये वाक़ई सही है? अब दो-तीन सवाल हैं। पहला, अगर उन्हें उनके घर में नज़रबंद नहीं किया गया था तो लोगों को उनसे मिलने से रोका क्यों जा रहा था? क्यों चुनिंदा रिश्तेदारों और दोस्तों को ही उनसे मिलने की इजाज़त थी? क्यों उनसे मिलकर आने वाले लोगों के सामने मीडिया से बात नहीं करने की शर्तें रखी गईं थीं?
वायको ने 11 सितंबर को तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री अन्नादुरैई की जयंती पर होने वाले एक कार्यक्रम में फ़ारुख़ अब्दुल्ला को अतिथि के तौर पर बुलाया था। वायको ने इस बाबत 29 अगस्त को प्रशासन से अनुमति भी मांगी, लेकिन उनके अनुरोध को ख़ारिज़ कर दिया गया। सवाल ये है कि जब अब्दुल्ला ‘आज़ाद’ थे तो सरकार क्यों उन्हें बाहर आने से रोक रही थी? अमित शाह ने 6 अगस्त को क्यों कहा कि ‘क्या गन कनपट्टी पर रखकर हम बाहर नहीं ला सकते?’
जब सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में वायको की याचिका पर सुनवाई शुरू हुई तो सरकार फंस गई। आनन-फ़ानन में इस सुनवाई से ठीक पहले अब्दुल्ला को ‘आधिकारिक’ तौर पर जन सुरक्षा क़ानून के तहत हिरासत में ले लिया गया। अगर उन्हें हिरासत में आज-कल में लिया गया है तो 11 सितंबर को उन्हें क्यों नहीं तमिलनाडु जाने दिया गया? सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या संसद में अमित शाह ने झूठ बोला था?
क़ानून तोड़ रही सरकार
लोकसभा और राज्यसभा नियमों के हिसाब से चलती हैं। लोकसभा की रूल बुक के नियम 229 में कहा गया है कि अगर किसी भी लोकसभा सदस्य को किसी आरोप में गिरफ़्तार किया जाता है या फिर हिरासत में लिया जाता है या फिर जेल भेजा जाता है तो इसकी जानकारी लोकसभा अध्यक्ष को तत्काल दी जानी चाहिए। यही नहीं, सदस्य को जहां गिरफ़्तार किया गया या फिर हिरासत में लिया गया, उस जगह समेत तमाम जानकारी तयशुदा फॉर्म में भरकर अध्यक्ष को दी जाएगी। इसी तरह नियम 230 में कहा गया है कि अगर उनको रिहा किया जाता है तो उसकी भी जानकारी लोकसभा अध्यक्ष को दी जाएगी।
नियम 231 कहता है कि जैसे ही लोकसभा अध्यक्ष को ये जानकारी मिलेगी, वे तुरंत सदन को इसकी जानकारी देंगे। अगर सत्र नहीं चल रहा है तो बुलेटिन में इसे प्रकाशित किया जाएगा। लेकिन 6 अगस्त को जब दयानिधि मारन ने सवाल पूछा तो लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने क्या कहा? उन्होंने कहा कि वो पता लगाएंगे। इसके तीन ही मायने हो सकते हैं।
पहला, फ़ारुख़ अब्दुल्ला को सचमुच हिरासत में नहीं लिया गया था। दूसरा, ओम बिड़ला को इसका पता नहीं था। तीसरा, उन्होंने ये जानकारी सदन से छुपाई। पहला मामला तो पूरी तरह ग़लत दिख रहा है। बीते एक महीने से फ़ारुख़ अब्दुल्ला से मिलने की कोशिश कश्मीर में तमाम पत्रकारों ने की। ख़ुद मैंने भी की थी, लेकिन किसी को भी उन तक पहुंचने नहीं दिया जा रहा था। फ़ारुख़ अब्दुल्ला को तमिलनाडु जाना था, लेकिन वायको के अनुरोध के बावजूद उन्हें नहीं जाने दिया गया।
साफ़ है कि वो हिरासत में थे। अगर वो हिरासत में थे तो क्या इसकी जानकारी लोकसभा अध्यक्ष को दी गई थी? अगर नहीं, तो ये संसद के ऐसे नियम का उल्लंघन है जिसके तहत सांसदों को विशेषाधिकार हासिल है। अगर इस मुल्क में देश का क़ानून बनाने में अपनी भूमिका अदा करने वाला कोई सांसद सुरक्षित नहीं रह सकता तो अवाम की क्या बात की जाए!
फिर सवाल ये है कि अब क्यों सरकार ने ‘आधिकारिक’ तौर पर उन्हें 12 दिनों के लिए जन सुरक्षा क़ानून में अब क्यों बंद किया गया? वजह बिल्कुल साफ़ दिख रही है। वायको ने सुप्रीम कोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉर्पस) रिट याचिका दायर की थी जिसके तहत किसी की गिरफ़्तारी पर फ़ौरी सुनवाई की जाती है। अदालत में याचिका के सवालों का जवाब देने से पहले सॉलीसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि वायको को ये जानने का कोई हक़ नहीं है। उनका लोकस स्टैंडाई नहीं बनता। अगर इस सुनवाई से पहले उन्हें ‘आधिकारिक’ तौर पर सरकार हिरासत में नहीं लेती, तो अदालत में सरकार घिर जाती।
‘तकनीकी’ तौर पर बचने के लिए सरकार ने आनन-फ़ानन में उनकी नज़रबंदी को ‘वैधता’ दी, जो बीते 43 दिनों से जारी है। जन सुरक्षा क़ानून के तहत अब हिरासत में लेने के बाद सरकार चाहें तो 2 साल तक फ़ारुख़ अब्दुल्ला को बिना किसी केस-मुक़दमें के बंद रख सकती है। इस क़ानून में सरकार को ये छूट हासिल है कि वो किसी को भी 2 साल तक बिना कोई कारण बताए जेल में बंद कर सकती है या फिर हिरासत में ले सकती है।