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4 Dec 2024, Wed

अजीत सिंह: अमेरिका में कम्प्यूटर इंजीनियर से कैबिनेट मंत्री तक का सफर

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दिल्ली

देश की राजनीति में किसान नेता के रूप में अपनी ज़मीन बनाने वाले चोधरी चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह का आज़ निधन हो गया है। चौधरी अजीत सिंह एक मझे हुए राजनीतिक खिलाड़ी थे। वो वक्त को पढ़ना जानते थे। उन्होंने अपनी राजनीतिक सफर में कई फैसले ऐसे किए जिस लोगों ने भले ही टिप्पणी की हो पर अजीत सिंह कभी अपने फैसले से पीछे नहीं हटे। वो लगातार दिल्ली में राजनीति की केंद्र बिंदू में रहे। ये अलग बात है कि अंतिम दिनों में उन्हें हार का सामना करना पड़ा। उनके लम्बे राजनीतिक इतिहास पर एक मजर डालते हैं।

अजीत सिंह की शिक्षा-दीक्षा
चौधरी अजीत सिंह का जन्म 12 फरवरी 1939 को मेरठ में हुआ। वो चोधरी चरण सिंह के बेटे थे। अजित सिंह ने लखनऊ विश्वविद्यालय से बीएससी की थी। इसके बाद वो आईआईटी खड़गपुर में सलेक्ट हो गए। पढ़ाई में बहुत शार्प माने जाते थे। ये चीज उन्होंने पढ़ाई के दौरान लगातार साबित भी की। उस दौरान भारत में आईआईटी से निकलने वाले बी टेक ग्रेजुएट अमेरिका का रुख कर लेते थे। 60 के दशक में अजीत सिंह अमेरिका चले गए। अमेरिका जाने का उनका उद्देश्य कंप्युटर साइंस में उच्च शिक्षा हासिल करना था। शिकागो के इलिनोइस इंस्टीट्यूट से उन्होंने पोस्ट ग्रेजुएट किया।

पहली नौकरी
60 के दशक में दुनिया की सबसे बड़ी कंप्युटर कंपनी मानी जाने वाली आईबीएम के अमेरिका मुख्यालय में गिने-चुने भारतीय काम करते थे। उस समय अजित सिंह उस कंपनी में बड़े ओहदे पर थे। अमेरिका में उन्होंने एक अच्छे कंप्युटर इंजीनियर के तौर पर अपनी जगह बना ली थी।

राजनीति में इंट्री
कहा जाता है कि चौधरी चरण सिंह चाहते थे कि उनका बेटा राजनीति में लौटे। पर अजीत सिंह ये नहीं चाहते थे। उस समय की खबरों की मानें तो वो भारत लौटने में बहुत इच्छुक नहीं थे। पर पिता चरण सिंह की इच्छा पर अजीत सिंह स्वदेश लौटे और राजनीति में कूद गए।

सियासी वारिस
80 के दशक के आखिर में जब चौधरी चरण सिंह ने पार्टी में अपना सियासी वारिस तलाशना शुरू किया तो उनकी इच्छा थी कि बेटे अजीत सिंह वापस भारत आकर राजनीति में उनका हाथ बटाएं। चरण सिंह के समर्थकों ने भी अजीत से वापस लौटने की गुहार लगानी शुरू की। माना जाता है कि अजीत सिंह का बहुत ज्यादा मन नहीं था लेकिन पिता की इच्छा के आगे उन्हें झुकना पड़ा।

भारत लोटते ही राजनीति में कूदे
80 के दशक के आखिर में अजीत सिंह भारत आ गए और राजनीति में कूद गए। 1986 में जब उनके पिता चरण सिंह बीमार रहने लगे तो वो राज्यसभा के रास्ते संसद में पहुंचे। इसी दौरान लोकदल में दो फाड़ हो गई। उन्होंने लोकदल का अपना गुट बनाया। इसका नाम उन्होंने लोकदल-ए रखा।

दल बदला तो कभी दल का विलय किया
साल 1987 में बने लोकदल- ए के अजीत सिंह अध्यक्ष बने। इसके बाद उनकी पार्टी का जनता पार्टी में विलय हो गया। साल 1988 में वो जमता पार्टी के अध्यक्ष बने।  इस दौरान ही अजीत सिंह ने कई पार्टियां बदली। 1989 में वो जनता दल में शामिल हो गए और पार्टी के महासचिव बने।

कोमज़ोर होती गई सियासी जमीन
अजित सिंह को अपने सारे राजनीतिक करियर में पिता की विरासत के कार्यक्षेत्र पश्चिम उत्तर प्रदेश के ताकत मिलती रही। जैसे ही ये इलाका उनसे नाराज़ होता गया तो वो सियासत में कमजोर भी पड़ते गए। उनके बारे में कहा जाता था कि वो कब किस पार्टी से गठजोड़ करेंगे और कब इसे तोड़ेंगे कहना मुश्किल है। हालांकि ये सब उन्होंने अपनी सुविधा और हितों को देखते हुए ज्यादा किया।

पहली बार बागपत से लोकसभा पहुंचे
पहली बार अजीत सिंह बागपत से 1989 में लोकसभा के लिए चुने गए। जनता दल की वीपी सिंह की सरकार में वो कैबिनेट मंत्री बने। 1991 में वो फिर लोकसभा के लिए चुने गए। अबकी बार वो पीवी नरसिंहराव की सरकार में मंत्री बने। 1996 के चुनाव में वो कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर चुनाव मैदान में थे लेकिन जल्दी ही पार्टी और लोकसभा से इस्तीफा दे दिया। 1998 के चुनाव में उन्हें पहली बार हार का सामना करना पड़ा। हालांकि इसके बाद वो 1999, 2004 औऱ 2009 में फिर चुने जाते रहे। वर्ष 2001 से 2003 में वो अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में भी मंत्री रहे।

चार प्रधानमंत्री के दौर में मंत्री रहे
पिछले 02-03 दशकों में तकरीबन केंद्र में अजीत सिंह हर सरकार में मंत्री रहे। वर्ष 2011 में वो यूपीए में शामिल हुए और केंद्रीय उड्डयन मंत्री बने। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में उन्हें मुजफ्फरनगर में बीजेपी के संजीव बालियान के हाथों हार का सामना करना पड़ा। उनकी हार काफी कम मार्जिन 6526 वोटों से हुई थी। इससे पहले 2014 में बागपत में भी उन्हें हार का सामना करना पड़ा। तब मुंबई के पुलिस कमिश्नर रहे सत्यपाल सिंह ने उन्हें हराया था।

संभाल नहीं पाए पिता की विरासत
उनके पिता और पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह ने सियासत की जो मज़बूत विरासत और जमीन उन्हें दी थी, उसको वो बनाकर नहीं रख पाए। धीरे धीरे ये विरासत कमजोर होती चली गई। चरण सिंह ने जाटों के साथ मुसलमान, गुर्जर और राजपूतों का समर्थन जुटाकर ‘मजगर’ का चुनावी समीकरण बनाया था, अजीत सिंह ने उस समीकरण को बनाए रखने का प्रयास तो किया लेकिन अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते वो कमज़ोर होती गई।

जाट हुए नाराज
अजीत सिंह जाटों के नेता तो रहे लेकिन उन्हें नाराज़ भी जमकर किया। उनके रिश्तों को लेकर इस इलाक़े में बहुत सी किंवदंतियां प्रचलित हैं। जैसे हर चुनाव में जाट अजीत को हराने की क़समें खाते हैं, लेकिन वोट भी उन्हीं को देकर आते हैं। कहा जाता है कि मतदान से पहले की रात चौधरी चरण सिंह बुज़ुर्ग जाटों के सपने में आते हैं, उन्हें याद दिलाते हैं कि चौधरी साहब के बाद अजित का ख़्याल उन्हें ही रखना है। इसके बाद अजित जीत जाते हैं।

फिलहाल ना विधानसभा सदस्य और ना ही लोकसभा सदस्य
साल 1987 में जब चौधरी चरण सिंह की मौत हुई तब उत्तर प्रदेश विधानसभा में लोकदल के 84 विधायक थे। अजीत सिंह अपने जीवन में लगातार राजनीतिक समझौते करते रहे। इससे पार्टी लगातार कमज़ोर होती गई। आज उनकी पार्टी राष्ट्रीय लोकदल का ना तो यूपी विधानसभा में कोई सदस्य है और ना ही लोकसभा या राज्यसभा में में कौई सदस्य हैं। कहना होगा कि चौधरी चरण सिंह के बाद उनकी विरासत संभाल रहे चौधरी अजीत सिंह के निधन के वक्त उनका राजनीतिक ग्राफ अपने सबसे खराब दौर में रहा।